देसी अदब के बेहद ताकतवर आचार्य, अच्युतानंदन, अपने घर की लाईब्रेरी में, आग की लपटों से घिर, जल मरे थे। किताबों की राख के साथ काली हड्डियाँ भर बची रह गई थीं। पता नहीं चल पाया कि यह हत्या थी या आत्महत्या।
उनकी अंतिम यात्रा शानदार थी। पर, उनका एकमात्र पुत्र, जिसने समाचारों में लिख उन्हें पिता मानने से कभी इनकार कर दिया था, बहुत बुलाने पर भी नहीं आया था। शहर की जानी-मानी हस्तियों के साथ, गंगा किनारे जलती उनकी चिता को, सबसे अलग खड़ा, सजल आँखों से एकटक देखता, मैं भी मौजूद था...
मैं, जो कुछ की निगाह में, उनकी मौत का कारण भी हो सकता था।
महाब्राह्मण के मुख से निकलती ईशा की अद्भुत स्वर-लहरियाँ मुझे और मृतात्मा को संबल दे रही थीं... 'अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान... युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमोक्तिम विधेम' ...हे अग्नि... हमें नए सुंदर रास्तों से ले चलो... पाप को चुनती हमारी इच्छाओं को नष्ट करो...
आग और गंगा से सब पवित्र हो जाता है। उन्हें जलता देख मैं हल्का हो रहा था। एक-एक कर सब जा चुके थे। अकेला मैं अब गंगा के पानी में उनकी राख बहा रहा था... मंत्रबिद्ध... गुरुर्ब्रह्मागुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ...ऊँ शांतं पापं... शांतं पापं... मृत्योर्माऽमृतंगमय...
और शांत जल में, धीरे धीरे, स्मृतियों के अक्श उभरने लगे थे... पीछे से आती देव ध्वनि, पानी में उभरती रेखाओं का पवित्रांकन कर रही थीं... वायुर्निलममृतंथेदम भस्मांतम शरीरं... ऊँ कृतो स्मर कृतं स्मर, कृतो स्मर कृतं स्मर...
अश्रुपूर्ण स्मरण से पाप कटते हैं, अन्यथा मृत्यु जहाँ ले जाए... वह स्मरण ही यह कहानी है... और कहानियाँ भी, एकलेखे, आध्यात्मिक साधनाएँ है। ये अक्षरों की हिमालय हैं। हृदय को ये पवित्र करती हैं। मनुष्य और ईश्वर तक पहुँचाती ये संदेश हैं। इनमें अपने को बहाकर, निज कर्मों के बंधनों से मुक्त हुआ जा सकता है।
यहाँ से बहुत ऊपर, मुक्ति के स्वर्गीय पाथर क्षेत्र, शिवालिक हिमालय में, गंगा, अलकनंदा नाम धार बहती हैं। कहते हैं कि वासना की अथाहों में डूबे रहने वाले राजा ययाति अपने प्रायश्चित के दिनों में इसी के किनारों में भटकते रहे थे। और अंत में इसी के जल में डूब मरे थे। यह कथा उन्हीं किनारों से शुरू हुई और सुनाई भी गई थी...
और सुनाने वाला इतना अजीज ठहरा कि लगता है यह कहानी मेरी भी है।
मध्य हिमालय की, वह, एक ऐंद्रजालिक सुबह थी।
सुबह के आसमान का उजला नीला रंग, मेरी बहती भावनाओं को जगह-जगह रोकते खड़े नियति के प्रश्न-चिह्नों को, आशाओं के रंग में रँग रहा था। पहाड़ की चोटियों पर, यहाँ-वहाँ, अब-तब, कामिनी-सी खिलखिलाती, धुत-सी लेट जाती धूप, मुझे बाँहें पसार बुलाती और गुम हो जाती। वो बादलों से डरती और मैं तुंग चोटियों से। चोटियों से नीचे, उनकी पनाहों में, एक बहता-सा ठहराव था। यह अलकनंदा थी - गंगा का अंतर-मन। उसकी धवल जल-रश्मियों को छू नीले रंग की ताकत बढ़ती और मेरा मन निश्चिंतताओं की बाँहों में, टेढ़े-मेंढे रास्तों, बहता चला जाता।
अलकनंदा के किनारे, उजालों के बीच अंधकूप-सा खड़ा, साँय साँय करता, मायावी, वह विशाल भवन था जिसके एक कमरे में मेरे सपने, केंचुए-से रेंगते, घुसने की जिद कर रहे थे। पर सपनों पे पहरा था। उन्हें गलियारे में रोक लिया गया था। कई दूसरे सपने भी वहाँ ठिठके खड़े थे - एक दूसरे से मुँह फेर, बजबजाते केंचुए... सब सपनों का रंग-रूप एक था, पर मिजाज जुदा। सबको अपनी बारी का इंतजार करना था।
सपने और हकीकत के बीच वो कमरा था जो हिमालय से भी ऊँचा, पथरीला, कँटीला और दुर्गम था।
सबकी निगाहें उसके दरवाजे पर टिकी थीं। एक तिलस्मी दरवाजा, जो मुझे, मुँह बाते और बंद करते, अजगर-सा लग रहा था। बीच-बीच में बज उठती बेल फुफकारों की सिहरन दौड़ा जाती। कमरे से बाहर निकलते हर चेहरे को देख मुझे सुकून होता। मैं निश्चिंत हो जाता। पर, दो घंटे की उस धुक-धुक प्रतीक्षा से हजार मौतें भी अच्छी थी। फाईलें वहीं फेंक अलकनंदा के शीतल जल में डुबकियाने का मन करता।
सदियों के बाद, बारी आने पर, उचाट मैं अंदर घुसा। सुसज्जित उस कमरे में, अँधेरा प्रकाशित था। अजीब-सी गंध थी। एक गंध, जो आपमें उदासियाँ भर दे। जिससे आप फैले नहीं, सिकुड़ जाएँ। जो आपकी भावनाएँ सुला दे, सोच को रोक दे। उफ्फ! एक कमरा, जिसमें घुटन लगे, जाने का पछतावा होने लगे, जहाँ से भाग आने का मन करे। घुसते ही जहाँ उबकाइयाँ आने लगे, आप असहज होने लगें। जहाँ होने की वजह सिर्फ एक मजबूरी हो। जहाँ सपनों से भी बाहर आने का मन करने लगे।
दुनिया का एक बेहद शक्तिशाली और खौफनाक कमरा, जहाँ सपनों के साथ खेला जाता हो।
काश ये कमरा कोई बदल सकता! किसी भूकंप से यह ध्वस्त हो सकता। कोई जलजला इसे मिटा सकता। कोई बाढ़ इसे समुंदर में बहा ले जा पाती। आतंकियों के पनाहों के शक में, किसी अमेरिकी हमले में यह जमींदोज हो जाता।
कमरे में, मेरे सपने के मुकाबिल, गोलाकार मेज के उस ओर, कुंडली मारे, वे पाँच बैठे थे। आँखों में पहाड़ बसाए, अध्यक्ष जी बीच में थे - गालों से बीयर की ललाई बिखेरते, मेरे दिमाग को घूरते। उनके दाहिने, आचार्यवर थे - कमनीय काया लिए, धवल वस्त्र, माथे पर टीका, पान को क्रूरता से दंतियाते तथा गुलगुलाते, अपने होने के आतंक को डुगडुगाते। आचार्य के दाहिने, स्मार्टी (बकौल अध्यक्ष जी) थे - कातिल हँसी के साथ मुझे देखते। अध्यक्ष जी के बाएँ मैडम जी बैठी थीं। उन्हें देख मुझे पहाड़ों के पंत याद आए - 'शांत स्निग्ध ज्योत्सना उज्जवल,अपलक अनंत नीरव भूतल'। मैडम के बाएँ तथा अपने को उनसे सटकर बैठा दिखाते उनमें क्या था? नहीं कह सकता। पर वे मुझे जानी दुश्मन से लगे। मैं उदास हो आया। सपना निंदियाने लगा।
उनके आगे सहमा, डरा, बेबस, किस्मत का मारा, बेचारा फिर भी अपने को किसी तरह समेटता मैं कुर्सी पर बैठा था। सामने दीवाल पर गांधीजी का फोटो टँगा था। ठीक उनकी छाती पर एक कीड़ा सन्न बैठा था। दीवाल से चिपकी छिपकली उसे सम्मोहित कर रही थी। कमरे की एकमात्र खिड़की खुली थी तथा दूर, अलकनंदा के उस पार, एक मंदिर झलक रहा था जहाँ रामचरितमानस के किर्तनियों का अहर्निश पाठ जारी था।
यह अदब की दुनिया के उस्तादों की भर्ती हेतु लिए जाने वाले इंटरव्यू का कमरा था। इसे अक्षरों के एक विदेशी कीमियागर ने माँ की छातियों की तरह दुनिया का पवित्रतम स्थल माना है। यहाँ, मेरे साथ हुआ यह पूरा वाकया हिंदी की उन जुबानों में हुआ जो दुनिया की शुरुवाती आसमानी किताबों के लफ्जों से आशनाई रखती हैं।
उधर मंदिर में किर्तनियों ने संपुट-गान किया - 'मंगल भवन अमंगल हारी... द्रवहुँ सो दशरथ अजिर बिहारी...' और इधर मेरा अमंगल-कांड शुरू हुआ।
'क्या हाईट होगी आपकी?' - हिटलरी आवाज में अध्यक्ष जी ने पूछा।
'जी, पद के लिए पर्याप्त है।' - खिड़की से आती शीतल पहाड़ी हवाओं ने चुपके से ये जवाब बताया मुझे।
'ये क्या जवाब हुआ?' - वे गुर्राए। हवाएँ खिलखिलाती भाग चलीं।
सोचा पूछूँ कि ये क्या सवाल हुआ। फार्म में तो लिखा था नहीं। इस नौकरी के लिए हाईट की क्या बंदिश? अपने गुरु तो नाम-मात्र के हैं। पर मंदिर से आती चौपाइयों ने चुप करा दिया - 'होइहइं सोइ जे राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावइ शाखा।'
'देखो बबुआ, जो पूछा जाए वही जवाब दो। फालतू का समय मत खराब करो। अभी डेढ़ सौ बाहर इंतजार में बैठे है...' - हवा, पानी, धूप, प्राण सब रोकते आचार्य जी ने घुड़का।
'जी, पाँच फुट सात इंच।' - मुझे ढूँढ़ती, कमरे में अचानक आ पहुँची कामिनी धूप ने बचाने का प्रयास किया मुझे। मैं क्या करता?
'लग तो नहीं रहे।' - शातिर शंकालु आचार्य ने दूसरा पान चबाया। उदास धूप मेरे गाल सहला हाथ मलते धीरे से निकल गई।
'जी, एकदम हूँ।' - बेबस, अकेला मैं, हँसा।
'अरे हाँ! ऐसे ही मान लूँ। मैंने भी आँखों से दुनिया देखी है।' - वे दहाड़े।
'क्षमा करें सर। आपका तर्क मैं समझा नहीं? मैं आँखों देखी नहीं बल्कि इंच-टेप से नापी हाईट बता रहा था।' - नाभि से साहस खींच मैंने सही बोला।
'जुबान को काबू में रखो। चुप रहो। झूठ मत बोलो।' - वे पटक कर चढ़ बैठे। उनके शब्द, कालिया नाग से फुफकारते दिवालों पर चक्कर लगा रहे थे।
'झूठ मत बोलो... झूठ मत बोलो... झूठ मत बोलो...' - वे सब पटक कर चढ़ बैठे। चार-चार कालिया नाग फुफकारते दीवालों पर चक्कर काट रहे थे, और एक नागिन भी। हे केशव!
'जी, इसीलिए तो मैंने पहला वाला जवाब दिया था।' - भयभीत केंचुए-सा कुंडली मारे बैठा, मैंने अंतिम प्रयास किया।
'अब बस! गलती मानना सीखो।' - फन काढ़े अध्यक्ष जी नरमे।
और किर्तनियों ने धीमे स्वर में पार्वती-विलाप शुरू किया - 'कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी।' और ग्लानि के समुंदरों में मैं ड़ूब गया। चुप्पियों को हिमालय से दबा दिया। सपनों को उनके चरणों पे रख दिया।
'अच्छा बताओ, रिसर्च किसके अंडर में किया।' - हो हो हँस आचार्यवर गरम मोम-से पिघले।
'जी, श्री मान्यवर पांडेय के अंडर में।' - 'अब क्या होगा?' भाव से मैं बोला।
'ये क्या नाम हुआ?' - वे चौंके, सब जानते हुए भी।
'जी, उनका यही नाम है।' - फिर बोला मैं।
'हाँ, वो तो ठीक है। पर ये भी कोई नाम हुआ।' - अध्यक्ष जी सिर खुजाते बोले।
'जी, अब इस पे मैं क्या कहूँ।' - फिर मायूस मैं।
'अरे कैसे नहीं कहूँ? हर बात का एक जवाब होता है महाशय।' - सचमुच बनावटी गंभीरता से स्मार्टी बोले।
मैं एक चुप, हजार चुप। कीड़ा ठिठक चुका था। छिपकली ने एक कदम आगे बढ़ाया। उसके सपने में कीड़ा उसके पेट में था। अपने सपने में कीड़ा गांधी की छाती से उड़ अध्यक्ष की खोपड़ी पर बैठा था।
'ऐसे चुप रहेंगे तो पढाएँगे क्या खाक!' - मैडम के हाथ पर हाथ रखते जानी दुश्मन बोले।
पढ़ाना मेरा पैशन था, मेरी पवित्रता, मेरा मकसद। गड्डमड्ड-सा मैं अंदर उतरता गया।
'भाई आप तो हद हैं। अच्छा चलिए ये बताइए की रिसर्च में टापिक क्या था?'- करुणा कर करुणानिधि आचार्य बोले।
'जी, हिंदी कथा भाषा।' - बेमन मैं बोला। और आधा चौपाइयों ने जोड़ा - 'पीपर पात सरिस मन डोला।'
'टापिक नितांत गलत है।' - साड़ी के पल्लू को कोंछ में बाँधती मैडम बोली। खिलखिलाती हुई मंदिर से आती एक प्यारी चौपाई निराश हो उल्टे पाँव वापस लौट गई।
'जी?' - मैं अवाक... हवा लाक... धूप का सीना चाक... और पहाड़, अलकनंदा में छपाक...छपाक...छपाक...
'हाँ, गलत है।' - आवाजों से बेखबर, सब को सुनाते वे फिर बोलीं।
'क्या पकड़ा है मैडम! अहह! पूरा डीप गई हैं साहित्य में। आप एकदम सही कह रही हैं। कहती रहें।' - चूना चाटते आचार्य ने चढ़ाया उन्हें।
'जी, लेकिन पांडे जी हमारे समय के बड़े साहित्यकार हैं। उनसे ऐसी गलती?' - पहाड़ों को वापस उठा-उठा रखते, हाँफते, विस्फारित नेत्रों, मैंने कहा।
'हुँह, पांडे जी! मैंने कहा कि टापिक आपका गलत है तो गलत है। वो यूँ होना चाहिए था - हिंदी के कथा साहित्य की भाषा।' - बालों को पीछे झटक, मानों पहाड़ों को पानी में वापस ढकेलते, सगर्व सबको सुनाया उन्होंने।
'जी, पर, कथा और भाषा के बीच साहित्य का वजूद अंडरस्टुड है।' - अंगद की तरह, पहाड़ों पर पैर जमा मैं चुनौती दे रहा था... जौ मम चरन सकसि सठ टारी... फिरहिं राम सीता मैं हारी...
'पर मुझे वो अंडरस्टुड नहीं होता।' - चौपाइयाँ चिल्लाईं - 'बोली पापिन बैन।'
'जी, आपका संशोधन कुछ ऐसा हुआ जैसे वेश्या के पहले स्त्री लगाना यानी स्त्री-वेश्या...'- वाह रे मैं!
और मंदिर से आती चौपाई - 'नहिं कोऊ अस जन्मा जग माही... प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं...' - के साथ कमरे में इसी समय वह महा-स्फोट हुआ...
'क्या? क्या कहा तुमने? वेश्या कहा? तुमने मुझे वेश्या कहा? '- वे लगभग चिल्लाईं।
'नहीं मैम। आपने शायद गलत समझा। मुझे माफ करें। मैं स्वप्न में भी ऐसा नहीं सोच सकता। अचानक याद आ गया यह एक उदाहरण भर था।' - मैं हकलाया। अंदर की हँसी और बाहर के डर के बीच झूलता।
'नीच, तुझे शर्म नहीं आई।' - बात बढ़ाते हुए, मैडम के कंधे पर लगभग हाथ रखते जानी दुश्मन बोला।
छिपकली का ध्यान भंग हुआ। सम्मोहन टूटा। कीड़े में हलचल हुई। बचने का यही सही समय था।
'व्हाट हैपेंड? व्हाट हैपेंड? ' - अध्यक्ष जी मजेदार रूप से अचंभित थे।
'अब क्या बताएँ डाक साहब। देखिए तो जरा हिम्मत। ये जनाब मैडम को वेश्या कह रहे हैं।' - आचार्य की आँखों में कुटिलता थी, बदमाशी थी, और मीठी पर विनाशक शरारत थी।
'बताइए, एक भली, भोली, सुंदर महिला की बेइज्जती कर रहे हैं। ऐसे लोग यूनिवर्सिटी का क्या करेंगें? ' - स्मार्टी के चेहरे से कमीनापन टपका।
'डिड यू से दैट?' - अध्यक्ष दहाड़े।
'नो सर। आई हैव सिंपली गिवेन एन इग्जांपल।' - अब मैं गंभीरता से गिड़गिड़ाया।
'बेवकूफ समझे हैं का जी हम सबको। अंग्रेजिया से हिंदिया वाला अर्थ मत बदलिए। आप भारी मिस्टेक कर गए हैं।' - आँख नचाते, पान घुलाते आचार्य जी की शरारतें जारी थी।
'मिस्टर, आप माफी माँगिए मैडम से।' - अध्यक्ष का आदेश आया।
'पर मेरी गलती क्या थी सर। मैं समझ नहीं पा रहा।' - कठोर हुआ मैं।
'वो सब ही पकड़ने के लिए हम यहाँ बैठे हैं बाबू साहब।' - जानी दुश्मन की आँखें मैडम पे फिसल रही थी।
'ठीक है। अगेन, आई ऐम सारी मैम।' - उदास मैं कह रहा था।
'अगेन का बे? अंग्रेज की औलाद... मान्यवरवा का पाप... मैडम वेश्या और तूँ केवल सारी... सीधा निकल यहाँ से और अलकनंदा में डूब मर... पाजी... सूअर...!' - हास्यास्पद क्रोध में, पानक रस को यहाँ वहाँ छींटते, आचार्य का कठोर निर्देश आया। खिड़की तक आ पहुँचा मानस का अनुभव-वृद्ध दोहा, जुबान बंद कर छिपकली के कानों के पास थका-हारा बैठ गया। जैसे आ के कोई गलती कर दी हो शायद!
'गलती नहीं थी फिर भी दो बार माफी तो माँग ली मैंने। अब क्यों सजा? आप लोग मुझसे और कुछ पूछ लीजिए।' - मैं लगभग रोया।
' नो। यू जस्ट गेट आउट फ्रॉम हीयर।' - खड़े हो अध्यक्ष ने दुत्कारा।
'ये तो अजीब है।' - भाड़ में जाओ निर्मल वर्मा। चौपाइयाँ रोईं - 'सच हरि भजन जगत सब सपना।'
'गेट आउट। जस्ट गेट आउट यू बास्टर्ड। ' - सब एक स्वर में चीखे।
फुफकारते विषधरों की कुंडलियों में जकड़ा वह कमरा अब नाग-कुंड सा दृश्यमान हो रहा था।
मुँह चलाते छिपकली कीड़े को कचर-कचर चबा, हडबड, पेट में डाल रही थी। उसकी सभीत आँखें हमारी ओर थीं। जानी दुश्मन मैडम का हाथ पकड़े 'तुझे तो खा जाऊँगा' अंदाज में मुझे देखते खड़ा था। स्मार्टी उन्हें छिपकली की तरह देख रहा था। आचार्यवर पान आत्मसात कर 'मैं आपको खुश करता हूँ' भाव से दुखी मैडम की तरफ जा रहे थे। अध्यक्ष जी 'मैं ही यहाँ एकमात्र मर्द हूँ' मुद्रा धर मुझ पर चिल्ला रहे थे - 'जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं। न जान न पहचान।' आचार्यवर ने जोड़ा - 'न रस न पान।'
और मुझे देखती, क्रोध से लहुआई, मैडम की नजरों के सामने गिरती चौपाइयों में, पार्वती ने, शिव अपमान होता देख, बीच दक्ष सभा में आत्मदाह कर लिया - 'अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयऊ सकल मख हाहाकारा।।'
सब कुछ मात्र पाँच मिनट में हो चुका था। झटके से मैं उठ खड़ा हुआ। उदास व निराश, अजगर की जीभ को रौंदता लौट आया। बाहर अन्य उत्सुक सपनों को मेरा इंतजार था। क्या हुआ, कैसे हुआ, जैसे प्रश्न थे। हताश हो मैं कुर्सी पर लुढ़क गया। मेरी दशा देख वहाँ प्रतीक्षारत कई सपनों के रंग बदलने लगे। एक मादा सपने के होठों पर कुटिल मुस्कान थी। यह देख मैं दंग था। शैतानियत का सपनों तक दखल है। काश! एक जैसे इन सब सपनों में अपनापा होता।
वर्षों से संचित होती निराशा अब हिमालय बन चुकी थी। हृदय का पानी सूख रहा था। पथरीली आँखों को अलकनंदा के जल से गीला करता रहा। अजगर का चेहरा आँखों में रह-रह कौंधता। मन के उत्थान-पतन का वह क्षण बेहद कष्टकारी था। आखिर कब तक ऐसे ही चलेगा? इस शहर से उस शहर... इस कमरे से उस कमरे... कभी दो मिनट तो कभी पाँच... कभी ये नहीं आता तो कभी वो... कभी इसका पहले से सेट है तो कभी उसका... कभी उसकी बेटी का होना तय है तो कभी उसके प्रिय चेले का... आखिर हो क्या रहा है ये सब?
केंचुए की ये चाल आखिर कब तक? हर समाधान के आगे एक समस्या नजर आई मुझे। और तब, अलकनंदा के उस किनारे, अचानक, बिजली की तरह, निर्णयन सिद्धांत के पुरोधा साईमन मेरे मन में कौंधे... व्हाट इज दी प्राब्लम? ...व्हाट आर दी अल्टरनेटिव्ज? ...व्हिच अल्टरनेटिव इज दी बेस्ट? ...और फिर न जाने कैसे, कब, कौन, निश्चयों की तरफ मुझे ढकेल रहा था। मैंने सुना - शप्तशती के मंत्र मेरे होठों पे तांडव कर रहे थे...
ओम एं आत्मतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा... ओम ह्रीं विद्यातत्वं शोधयामि नमः स्वाहा... ओम क्लीं शिवतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा... ओम एं ह्रीं क्लीं सर्वतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा...
धमनियों में बहते सीधे, सरल ज्ञान के रक्त को सफेद राक्षसों ने पहले तो जहरीला किया और फिर फूँक मार उसे उफना डाला। चेतना के चमकीले कमरों पर कब्जा जमा सपने सक्रोध हुँकारने लगे। प्रतिशोध की गंगोत्री जमी, फिर पिघलकर फूट पड़ी और विनाश की उफनाती कर्मनाशा काल-सी बह चली।
और उस भीषण बहाव में सब खत्म हो गया। इंटरव्यू निरस्त हो गया। मेरे सपनों ने उस दिन शाम को पहाड़ी ईमानदारी को धिक्कारा। ठीक उस वक्त, जब किर्तनियों ने लंका कांड का गायन शुरू किया था, और अंगद रावण के दंभी दरबार से, निराश हो लौट आए, मैं, उस शराबखोर शहर के बुजुर्गों के सामने गिड़गिड़ा रहा था। अपनी नशीली रुलाई से मैंने उन्हें भिगो दिया। उनके भीतर गुस्सा फूट पड़ा। और फिर पहाड़ों पर ईमानदारी का वह अंतिम करतब, नगरपालिका के मैदानों से शुरू हुआ। कहते हैं कि और अन्य सपने भी इसमें शामिल हो गए थे। रात को आठ बजे, जब अलकनंदा के उस पार मैं मंदिर में सिगरेट पीता बैठा कीर्तन सुन रहा था, नशीले ईमानदारों का एक रेला उस कमरे में घुस चुका था। अध्यक्ष को कालर पकड़ बाथरूम में अगले दो दिनों के लिए बंद कर दिया गया। मैडम को मेरा दिया उदाहरण समझाया गया। जानी दुश्मन लहूलुहान पुलिस चौकी में बैठा था। स्मार्टी अस्पताल में पड़ा था। पर, आचार्यवर किसी तरह बच के भाग निकले और अलकनंदा को पुल से पार कर मंदिर की तरफ आते दिखे, जहाँ मैं बैठा था।
'अलख निरंजन गुरुदेव। बैठें। साक्षात्कार खत्म हो गए क्या? ' - नई सिगरेट जला, निर्मम हो, मैंने पूछा।
'हाँ, हो गए। तो? ' - वे चौंके। सब छुपा, चुनौती देते बोले।
'कोई पसंद आई आप सबको।' - उनकी आत्मा को मैंने चुटकी से पकड़ा।
मुझे घूरते उन्होंने समय लिया। सोचते रहे। और अचानक वे क्रोध की ज्वाला बन चुके थे। वे चिल्ला रहे थे - 'तुम्हारी इतनी हिम्मत! मुझे सब पता है। सब तुम्हारे बाद ही शुरू हुआ। तुम्हीं ने मजमा खराब किया। सब कुछ कितना नियत था! पर तुमने वहाँ और बाहर खलल डाला। क्या समझते हो अपने-आप को? याद रखना,जब तक जिंदा हूँ कहीं घुसने नहीं दूँगा।'
अब तक मैं विचलित हो चुका था। रही सही शर्म उस कमरे ने खत्म कर दी थी। बेधड़क बोल बैठा - 'असलियत आपकी जान चुका हूँ मैं इसलिए आराम से बोलिए। ये पहाड़ है, बनारस से काफी दूर। आपकी हत्या भी कर सकता हूँ। जान-बूझकर मेरा इंटरव्यू खराब किया गया। आप सब अपराधी हैं। बल्कि अपराधियों से भी बदतर। रही बात घुसने की, तो सुन लीजिए, रास्ता आज हिमालय ने दिखा दिया है और निमित्त बने हैं आप। दावा करता हूँ कि बहुत जल्द घुस जाऊँगा, और ये बात कहीं लिख लीजिए कि उसमें एक हस्ताक्षर आप का भी होगा।'
'बच्चे हो तुम अभी। अंदाजा नहीं तुम्हें की किसके सामने खड़े हो। यहाँ से लेकर दुनिया के अंतिम कोने तक मौजूद इन कमरों में मेरा दखल है। हर जगह से उठाकर तुम बाहर फेंक दिए जाओगे।' - सगर्व वे गहरे शब्दों में बोले।
घृणा से थूँक और सिगरेट उनके पैरों के पास फेंक मैं उठ चुका था। वे आश्चर्यचकित और कुछ सभीत, मुझे जाता देखते रहे।
झाँझ मंजीरों में अलमस्त किर्तनियों के मुँह से निकलती चौपाइयों में, रावण का आत्मविश्वास गरज रहा था - ' निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा। देहऊँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा।। '
और, इसके बाद का वाकया अब तारीखी दास्तानों में शामिल है। अदब के लोग, आचार्य और मेरे बीच वर्षों चले इस वाकए को अच्छाई और सच्चाई के बीच हुए झमेले के रूप में कहते, सुनते आए हैं। अदब में कभी कभार खुरपेंच करने वाले, केदार मठ के महामंडलेश्वर स्वामी सत्यासत्यमित्रानंद इस प्रपंच पर अक्सर क्षुब्ध हुए और तुलसीदास के हवाले से कहते रहे - 'गुरु सिष बधिर अंध का लेखा... एक न सुनइ एक नहिं देखा... घोर कलियुग है भाई... शिष्य ही गुरु पर चढ़ बैठा...' सफेद कपड़े पहन, लाल बत्ती लगी कार में बैठे मंत्री जी भी अक्सर कहते हैं कि 'अरे भाई, आचार्य जी इतने अच्छे और अपने आदमी थे। उनका साथ भला मैं कैसे नहीं देता। रही बात उस हरामी की, तो शिक्षा व्यवस्था में घुस आए इन अपराधियों को हमें मिलकर उखाड़ फेकना होगा।' उधर फटी गंजी पहने, बेरोजगार, अपने समय के गोल्ड मेडलिस्ट पीएच.डी., कवि राम जियावनलाल, को आज भी गर्व है कि उनके शब्द सच्चाई के काम आए। वे यह भी कहते सुने गए थे कि - 'साथियों, इन बंद कमरों में लोगों और पूछे गए सवालों का मेयार बदलना होगा। और यदि प्यार से न बदलें तो दोनों को लतियाना होगा।' मुझे उकसाने के लिए अपनी लड़ाकू कविताओं की एक पूरी पेटी वे पहुँचा गए थे।
मंदिर पर, आचार्य के साथ हुई उस घटना के बाद एक जूनून-सा होने लगा था मुझमे। सफेद राक्षस खून में दौड़ते रहते। रात-दिन वही सोच। सपने साफ थे। पर हकीकत तक पहुँचने का रास्ता एक कमरे से होकर जाता था। जो जहाँ-जहाँ था, वहाँ-वहाँ आचार्य के कब्जे में था। यह कमरा और आचार्य अब मेरे सपनें की जद में थे। पर सफाई से इसमें से गुजर जाना मुश्किल था। मजबूरन, मैंने सपने की डिजाइन बदल दी। उसे अंतर-स्वप्नों की लड़ियों से जोड़ने लगा।
और कई कोशिशों के बाद, उस दिन; जब फोन से हुई आखिरी बातचीत में, नशे में धुत, अट्टहास करते आचार्यवर ने कहा कि - 'तुम अगर साल भर मेरा वो पकड़ कर सहलाओ तो तुम्हारे कल्याण की सोच सकता हूँ।'; तब, मैंने खुद को सफेद राक्षसों की पनाहों में छोड़ दिया था।
प्रतिहिंसा में सुलगते उन्हीं दिनों मेरा एक क्रूरतम हत्यारा मित्र, डा. मेघनाथ चौहान; जिसने मेरे साथ ही अदब की ऊँची डिग्रियाँ ली थीं तथा जिसने उस कमरे को रिझाने के लिए कभी निहायत ही जहीन कविताएँ लिखी थीं, पर जिसे आचार्य ने इरादतन उन कमरों से लगातार खदेड़ा था, और इस कारण निराश हो जो बाद में खूनी कारनामों में अपना हाथ आजमाने लगा था; तिहाड़ जेल से जमानत पर छूट मुझसे मिलने आया था। उसने, जबान के बेहद पक्के हत्यारे, बच्चा गहड़वाल को अपना नया गुरु बनाया था और उसके साथ जघन्य अपराध कथाओं को रचने में तल्लीन हो गया था। उसकी कथाएँ बेहद चाव से पढ़ी जाती थीं और उनकी हकीकतों पर पुलिस और अदालतें बहस करती थीं। एक बीस हत्याओं वाली कथा की हकीकतों पर बहस हेतु उसे कुछ दिनों के लिए तिहाड़ जेल में रहने का आमंत्रण मिला था।
सुबह सुबह निर्मल संत-सा लगता, रामचरितमानस के पन्नों को पलटते बैठा वह, जब मुझे उसके नए मतलब समझा रहा था तभी मैंने गिड़गिड़ाते हुए आचार्य की कारस्तानियों को उससे बताया और होने वाली लड़ाइयों में मदद माँगी। आचार्य का नाम सुन वह धुआँ हो उठा। आँखे बंद कर वह अंदर की हलचल मिटाता रहा। फिर सजल आँखों, उदास हो मेरा हाथ पकड़ उसने कहा था कि 'देखो, इन मरे हुओं को क्या मारना यार! अजीब लोग हैं ये जो न दिल में हैं न दिमाग में। इन्हें देख तो वो बंगाली कविता याद आती है कि 'जवानी का जोश बुढ़ापे की वासना बन गया',पर फिर भी तुम जिद करते हो तो ठीक है। लेकिन मेरा यह सिद्धांत याद रखना कि मारना है तो मारना है। सोचना कुछ नहीं है।' उसकी बात से मुझे सुकून हुआ। आचार्य को अपना शिकार बता बाकी जो भी बीच में आए उन्हें मैंने उसके सिद्धांतों के हवाले कर दिया। मेरे अंदर की कठोरता अब मुकम्मल हो चुकी थी। उसी रात मित्र मेघनाथ चौहान को मैंने कई सुपारियाँ सौंप दी थीं। मुझे गले लगा, मेघनाथ चौहान खून के समुंदरों में छुप के बैठ गया था।
सहारा पा, मेरे खून में अब हिम्मतों की लहरें उठने लगी थीं। और तब, जबकि मैं खुलेआम आचार्य के नाम की गालियाँ हवाओं के नसों में भरने लगा था, आसमान के सप्तरिषियों ने मेरा रास्ता रोक लिया। आसमान का बृहस्पति द्वार खोल वे बरजे - 'गुरु जैसे हैं वे तुम्हारे, बेटे। गुरु-द्रोह नीचतम पाप है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। ये कर्म तुम्हे घोरतम नरकों में ले जाएगा।' पर लट्टू की तरह नाचता मैं उन पे चिल्ला रहा था - 'नीचतम कर्म जब वे कर रहे थे तो आपने उन्हें रोका क्यों न था। आपके सुझावों पर मुझे संदेह है। रही प्रायश्चित की बात तो गीता में भगवान कृष्ण कह गए हैं... ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात कुरुते तथा... ज्ञान की अग्नि सभी कर्मफलों को भस्म कर देती है... इसलिए कृपया खिड़की बंद करें और सोते रहें आप लोग।'
और तब मुझे पुचकारते, मेरे कानों में धीरे से वे कह रहे थे - 'देखो, सफेद राक्षसों पर अधिक विश्वास मत करो। सात तारों की मर्जी और मदद के बिना तुम ये कर न पाओगे। हम तुम्हारे हृदय को समझते हैं। यह लड़ाई जरूरी है चाहे जैसे भी लड़ी जाय। तुम अपना संकल्प पूरा करो किंतु हमें तुम्हारी आत्मा को निकाल, खौलते तेल के कड़ाहों में रख, शुद्धिकरण करते रहना होगा ताकि सातवें आसमान के ज्ञान के अहंकारी देवता प्रसन्न हो सोते रहें। और दूसरे, तुम हमसे वादा करो की गुरु-हत्या का प्रयास नहीं करोगे।' आत्मा के रहने से मैं बेचैन ही रहता सो उसे तुरंत निकाल उनके हवाले किया और यह वादा भी कर गया कि 'गुरु-हत्या मेरे संकल्पों में शामिल नहीं... पर हाँ, ज्ञान के इस कुरुक्षेत्र में अगर स्वयं उन्होंने आत्मघात कर लिया तो इसमें मेरी जिम्मेदारी न समझी जाए।' वे संतुष्ट हुए। और तब उन्होंने मुझे चारों तरफ से अपने घेरे में ले लिया।
और तब, महामृत्युंजय मंत्र की छाँव तले, मुझे, गंभीर वशिष्ठ ने आत्म-नियंत्रण सिखाया, आत्मलीन विश्वामित्र ने सर्जना की छड़ी दी, प्रकृति लय कण्व ने सोम-रस पिलाया, तेजस्वी भारद्वाज ने शक्ति के मंत्र कानों में फूँके, कर्मठ अत्रि ने यज्ञ की क्रियाएँ बताईं, आनंदित वामदेव ने मन में संगीत भरा, और महाज्ञानी शौनक ने एकाग्रता का बीज दिया। फिर सबने मुझे विजय का आशीष दिया और लड़ाइयों को देखने के लिए मानस की चौपाइयों में छुप कर वे सब बैठ गए - 'हरषि शप्तऋषि गवने गेहा।'.
और उसके बाद, शुक्र की महादशा लगने पर, सात तारों की खुली निगाहों के नीचे, स्वप्न, इच्छा और खतरनाक लगते कर्म के मेल की ताकत से, मैंने, आचार्यवर को ललकारा था। मेरे सपने लगातार उनका पीछा करते। अकादमिक दुनिया में, उनके खिलाफ रोज उड़ती अफवाहों ने उन्हें हिला दिया था। कलम और मुँह से उन्होंने पाप की नदियाँ बहानी शुरू कर दीं पर मैंने उस कमरे में उनकी घेरा-बंदी नहीं छोड़ी, तो नहीं छोड़ी।
इस सदी की शुरुआत में ही हुईं ये घटनाएँ कोशिश करने पर शायद आपको याद आ जाएँ। अदबी दुनिया में हलचलें मच चुकी थी। दुनिया के अंतिम कोने का कलमकार भी मेरे और आचार्य के संपर्कों में था। बड़ी-बड़ी अकादमियों ने आचार्य के पक्ष में बयान जारी किए। यहाँ घुस आए हुकूमत के अधिकारियों ने आचार्य की हौसलाअफजाई की और उन्हें इस्पात की चहरदीवारों के पीछे छुपा लिया। पर मेरे दोस्त मेघनाथ चौहान ने, उनके छुपने के हर सरकारी गैरसरकारी अड्डों को ढूँढ़ निकाला और आग उगलते बमों से उड़ा दिया। बमों ने मीडिया का ध्यान खींचा और उसने आचार्य की सुरक्षा में हो रहे खर्च को समाचारों में उगल दिया। परेशान हो हुकूमत ने हाथ खींच लिया।
और अगर आपको याद हो तो इसी मानीखेज घटना पर, सुदूर जंगलों के उस कम उम्र लड़के ने भावुक हो 'साहित्य और राजनीति' के गठजोड़ पर एक बेहद क्रांतिकारी कविता लिखी तथा जिसके लिए उसे उस वर्ष एक बड़े पुरस्कार से नवाजा गया था।
आगाज अच्छा हुआ था, पर जल्द ही खेमेबाजी भी बन गई थी। और कहना न होगा कि इस लड़ाई में कहानियाँ खुल कर आचार्य के साथ रहीं। उपन्यासों की सहानुभूति मेरे साथ थी पर वे परजीवी, तटस्थता के स्विटजरलैंड बने रहे। आत्मकथाएँ अनिर्णय का शिकार रहीं। आलोचनाओं का सैद्धांतिक समर्थन आचार्य को मिला। पर, कविताओं ने मेरा साथ दिया।
मेरी लड़ाई में, मोर्चे पर आगे कविताएँ ही रहीं। और अदब की दुनिया का यह एक अद्भुत दौर था जब भयानक और खतरनाक कविताएँ जगह-जगह से उठने लगीं। गाँवों, जंगलों और शहर के पिछवाड़ों से निकल ये कविताएँ बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं, गढ़ों और मठों में घुसने लगीं। अदब की दुनिया का संतुलन बिगड़ने लगा। हुकूमत ने सेंसर लगाया, बाजार ने खरीद पर रोक लगाई, पर सिलसिला रुका नहीं। कविताओं से, आचार्य के खेमे में, डर का एक माहौल सा बन गया। ऐसे में आचार्य के समर्थन में आईं आलोचनाओं ने ये दिलासा दिया कि घबराने की कोई बात नहीं। ये अशक्त कविताएँ मात्र हैं। ये भावोच्छवास हैं, विदेशी प्रभाव की हैं, फासिस्ट हैं, जनविरोधी हैं, सत्ता विरोधी हैं, अभारतीय हैं। बिना हमारी व्याख्या और समर्थन के ये अर्थहीन और दो कौड़ी की हैं।
अदब के इंद्रासन पर, बकरे की कलेजी खाते बैठे, उस आलोचक ने तब यह कहकर सबको और चौका दिया कि 'अमेरिकी मदद से कुछ लोग, अमूर्त कविताओं के सहारे, देसी अदब की संस्कृति पर, अंदर से हमले कर रहे हैं। ये दक्षिण-पंथी अराजक लोग हैं। उनका निशाना फिलहाल आचार्य हैं। हमें सावधान रहना होगा और आचार्य के हाथ मजबूत करने होंगें।'
पर मैंने और कविताओं ने इसकी परवाह न की। यह दबाव इतना प्रबल था कि अक्सर उस कमरे में मैं लड़ाई में भारी पड़ जाता। पर बाद में इससे घबराकर आचार्य ने पैतरा बदल लिया। उन्होंने उस कमरे में होने वाले सवालों और जवाबों से कविताओं को बेदखल करवा दिया। अपनी इस महत्वपूर्ण जीत पर वे काफी खुश हुए थे और कमरे से बाहर निकल गलियारे में मुझे फिर धमकाया था। यह एक डेडलाक-सा था। मैंने उन्हें चेताया था और अदब से बाहर के जंगी मैदानों में उन्हें खींच लाने की प्रति-धमकी दी थी। पर निडर दिखे वे बेहयाओं की तरह हँसते रहे।
मैं भी हँसा, क्योंकि ठीक उसी दिन उनकी कुंडली के बारहवें घर में, पहले से रह रहे सूर्य, केतु के साथ अब मंगल भी रहने आ पँहुचा था। यह जातक का बड़ा ही खतरनाक घर होता है।
पर दिमागी रूप से मुझे यह तोड़ देने वाला वाकया था। लगभग उदास रहते इन दिनों, जब मैं अँधेरे में उधेड़बुन में बैठा रहता और मेरा दोस्त मेघनाथ चौहान बार-बार यह कहता कि 'आचार्य जी शेर नहीं भेड़िया हैं। उनसे शेरों की तरह नहीं लड़ा जा सकता, और न ही ठेठ अदबी तरीके से। तुम कहो तो सीधे उन्हें काट डाला जाए', पर, मैं उसे मना करता और भीतर के अँधेरों में खोया रहता। तब कविताएँ मुझमें साहस भरतीं। रणनीतियों में वे कमजोर थीं, पर विचारों में अडिग। पर, मेरे सारे हथियार फेल हो चुके थे। और अब विराग-सा मन में छा रहा था। लड़ाई की कुछ-एक रणनीतियाँ मेरे मन को भाती न थीं।
लेकिन लोग मुझे माफ करें, कविताओं ने ही मुझे मजबूर कर दिया था। एक दिन, एक बेहद ईमानदार कविता के गुप्त तहखाने में मुझे रिवाल्वर मिला। एक बहुत छोटी कविता ने उसमें ढेर सारी गोलियाँ भर दीं। अपेक्षाकृत एक लंबी कविता ने बंदूक से शहरों में लड़ने की ट्रेनिंग दी। और दोस्त मेघनाथ चौहान पीछे से 'उल्लहा उल्लहा' कर उकसाता रहा।
आचार्य का दिमाग सन्न करने के लिए यह लड़ाई का टर्निंग प्वाइंट था। मुझे अब केवल आचार्य की छाती भर दिखनी थी। और कविताओं ने यह काम आसान किया। यह देखना रोमांचकारी था कि उन कविताओं ने आचार्य की कहानियों पर बेतरह हल्ला बोल दिया। कहानियाँ, इस लड़ाई में, बुरी तरह हारीं। अदब की दुनिया में यह लड़ाई ' गद्य और पद्य पर निर्णायक बहस' के रूप में भी जानी गई, जिस पर इस दशक में कई शोध लिखे गए और सेमिनार किए गए। इस जीत की खुशी में कविताओं ने अव्ययों और क्रियाओं को कहानियों से छीन लिया। अदब के पन्नों पर बाढ़ सी फैल रही कविताओं के सहारे मैं यह लड़ाई लगभग जीतने को था कि आचार्य फिर नीचता पर उतर आए और उन्होंने मुझे हराने के लिए पूरे इंटरव्यू के खिलाफ वीटो कर दिया। अदब के संस्थानों में हल्ला मच गया। ऐसा पहली बार हुआ था। पर सारी कायनात उनके समर्थन में चुप रहीं। कहीं कहीं दबी जुबान उनकी थू-थू जरूर हुई।
और तब आप याद करें तो, मौका पा इन्हीं दिनों उस बड़े मशहूर कवि ने खुले आम निर्भीक हो यह कहा था कि 'भूमंडलीकरण के खिलाफ / अब / केवल कविता खड़ी है'। आप को बताता चलूँ कि ये शब्द मेरे दोस्त मेघनाथ चौहान की कभी लिखी एक कविता से उन्होंने उड़ाए थे।
खैर, वीटो के बाद आचार्य अब खुले में आ गए थे। उन ईमानदार पर खतरनाक कविताओं की ताकत से चल रहे मेरे आपराधिक-से लगते कृत्यों का दबाव बढ़ता जा रहा था। रिवाल्वर की नली में गोली बन बैठी उस बेहद खतरनाक कविता को उन्होंने देख लिया था, जो अभी बाहर थी पर अंदर भी चल सकती थी। भयभीत उन्होंने आलोचकों की ओर देखा। पर रिवाल्वर के टक्कर का कोई प्रतिमान उनके पास न था। उनका साथ छोड़ वे कायर आलोचक तब भाग चले और अदब के अँधेरे इतिहासों में अपने को छुपा लिया। पर मेरे उस हत्यारे दोस्त मेघनाथ चौहान ने उन्हें खोज निकाला और खून के महासागरों में कागजों की तरह फाड़ कर चिंदी चिंदी बिखेर दिया।
आचार्य अब अकेले थे। बंदूक की गोलियों का आकार धर पीछा करती कविताओं से सपनों-तक में अपने को बचाते। मैदानों में अब वे रावणों की तरह नकली माया रचते, कमरों में मंत्रो का उच्चारण कर प्रेतों का आह्वाहन करते। और ऐसी लड़ाइयों में मेरी मंत्र कविताओं ने उन नकली दशाननों को छिन्न-भिन्न कर दिया था। अपने ही खून से बने कीचड़ों में फँसे वे मुझे कर्ण से दिखाई पड़ रहे थे। पर मैं उन्हें मारना नहीं चाहता था। सात तारों से किए वादे का मुझे ध्यान था। सच कहूँ तो, कमरा-दर-कमरा चलती आँखमिचौली के इस खेल में अब मुझे मजा भी आने लगा था। वैसे, कमरों की नई डिजाइन बनाने के लिए पुरानी डिजाइनों के खोट को जानना भी जरूरी होता है।
और तब मेघनाथ चौहान की सलाह पर, 'ताबूत में अंतिम कील ठोंकने' की तर्ज पर, आचार्य को डराने हेतु इस अहिंसक रणनीति को मैंने मंजूर कर लिया। ब्रह्म-मुहूर्त का समय चुना गया जब वे परिसर में टहलने निकलते थे। सड़क के किनारे पौधों में छुपे हम दोनों ने लगातार उनके दाएँ, बाएँ, ऊपर और नीचे गोलियाँ दागनी शुरू की। अचानक इस गोलीबारी से वे भयाक्रांत हो उठे। वे कभी ठिठकते तो कभी तेज भाग चलते। भागते भागते वे चौराहे के बीच खड़ी गांधी की मूर्ति के पीछे जा छुपे। एक गोली से गांधी की लाठी टूट कर गिर पड़ी। उन्होंने चौंक कर चारों ओर देखा और बदहवास फिर भाग चले। उन्होंने परिसर से बाहर आने का रास्ता चुना। अब वे मुख्य बाजार में थे। पीछे से आती गोलियों ने सड़क के पलस्तरों को उखाड़ना शुरू किया। बदमाश मेघनाथ ने एक गोली से उनकी धोती फाड़ दी। मैंने आँख तरेर मना किया उसे। धोती उठा वे लगातार भागते रहे। पसीने से तर-बतर, डरे जब वे थाने में पहुँचे तो उन्होंने दरोगा के पैर पकड़ लिए। उन्होंने मेरे खिलाफ एफ.आई.आर. लिखाई तथा तत्काल गिरफ्तारी की माँग की। पर दरोगा ने पहले जाँच करनी चाही। और जाँच में उन्हें झूठा पाया गया। क्योंकि ठीक उसी समय मैं अस्पताल में सर्दी-जुकाम का इलाज कराने भर्ती था। उन्हें पुलिस द्वारा, मेरे खिलाफ, और पुलिस को परेशान करने के लिए, दुबारा ऐसा न करने की चेतावनी दी गई।
आचार्य अब बदहवास और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। दिमागी लड़ाइयों से जुदा, पानीपत के हकीकी मैदानों में जिस्मानी कलाबाजियों से लड़ने का अनुभव उन्हें शायद न था। उनकी जान पर अब बन आई थी। सूर्य मंगल और केतु उनके बारहवें घर में तोड़-फोड मचा चुके थे। दसवें घर में बृहस्पति का प्रकाश-स्रोत हल्का पड़ रहा था। शनि और राहु की उस पर दृष्टि भी थी। और ज्योतिषाचार्य लक्ष्मण दास इन दोषों के निवारण में असफल हो रहे थे।
उधर बृहस्पति के नवें घर से होकर आता मूल प्रकाश मेरे बारहों घर को रोशन कर रहा था। लग्न में बैठा शुक्र दमक रहा था। दसवें घर में आ बैठा मंगल नौकरी-योग बना रहा था। और बड़ों को देख, छोटे नक्षत्रों ने, मेरे हित में आकाश को फैला दिया था।
रिवाल्वर के साथ साथ, ग्रहों और जातक के इस गणित को भी आचार्य समझते थे। एहतियातन, एक विदेशी कविता को उन्होंने शांति-दूत बना मेरे पास भेजा। मैं तैयार था, पर शर्तों के साथ। बहुत ना-नू के बाद आखिरकार मजबूरन संधि की इस शर्त को उन्हें मानना पड़ा कि उसी कमरे में पूर्व-नियत एक मजमा बना कर उन्हें प्रायश्चित करना होगा, और असफल होने पर उन्हें आलोचकों की मौत मरने के लिए तैयार रहना होगा। शराबों के दरिया में तैरते और खूनी कल्पनाओं में डूबे मेरे दोस्त मेघनाथ चौहान ने उन्हें आलोचकों के कटे सिरों के वीडियोज दिखा दिए थे।
त्राहि माम करते-करते, आखिर में उन्हें वह करना पड़ा जो उन्होंने सपने में भी न सोचा होगा। उस कमरे को उन्हें सुहागिन की तरह सजाना पड़ा और दूल्हे की तरह मेरा स्वागत करना पड़ा।
दास्तानों में छुपी इन हकीकतों को आप चाहें तो सच मानें। उस कमरे में, इतिहास का यह एक बिल्कुल अनोखा और अद्भुत आयोजन था जहाँ कीड़ा छिपकलियों को चबा रहा था। आज सोच के हँसी आती है, और ग्लानि भी, पर यह बिल्कुल यूँ ही हुआ था। भयानक खबर की कविताओं ने उस कमरे को चारों ओर से घेर रखा था। पूरे परिसर में कर्फ्यू-सा सन्नाटा पसरा था। मेघनाथ चौहान को बाहर खड़ा कर, बिना बारी के उस कमरे में मैं धड़धड़ाते घुसा था। मेरा आतंक वहाँ पहले से मौजूद था। सबके चेहरे लटके हुए थे। आचार्यवर मुझे देख हाथ जोड़ उठ खड़े हुए थे। दीवाल पर टँगी हँसती मोनालिसा की पेंटिंग के ठीक सामने की कुर्सी को खींच, एक टाँग पर दूसरी रख, मैं इत्मीनान से बैठ गया था। बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा बना रहा था। आखिरकार मुझे ही कहना पड़ा था कि 'कुछ पूछेंगे नहीं क्या आप लोग?' किसी में साहस न हुआ था। तब मैंने आचार्य को घूरा था। वे हड़बड़ाते हुए कह रहे थे - 'कुछ विशेष तो क्या पूछना आपसे। उ सब तो आप जानते ही हैं। बाकी इसके बाद मेरी विनती है कि आप हमसे प्रसन्न होइए और वो सब टेंसन खतम कीजिए।' यह सुन निर्निमेष मैं उन्हें ताक रहा था। इस एक आदमी के कारण मुझे ये सब करना पड़ा था। अब उन पर दया आ रही थी। कविता से रिवाल्वर निकाल उन्हें निशाना करते मैं धीरे-धीरे बोल रहा था - 'इसका ट्रिगर दबाना बहुत आसान है प्रोफेसर। लेकिन फिर आदमी खतम हो जाता है। पर जैसे आप मारते हैं उससे आदमी मरता नहीं, तडपता रहता है। मरना चिंतनीय नहीं है पर तड़पना है। किसी को मार देना गलती है, विक्षिप्तता है,पागलपन है, अपराध है, पर किसी को तडपता छोड़ देना घोरतम पाप है। और आप सब यही करते हैं। इसकी माफी संभव नहीं। एक माफियागिरी सी चल रही है इन कमरों में। इस कमरे को आप सबने गंदा कर दिया है। यहाँ होने वाली प्रक्रिया गलत नहीं है। गलत हैं वो लोग जो अपने को नियंता समझ बैठते हैं। ज्ञान की ऊँची श्रेणी पाए एक युवक की गरिमा तक आप छीन लेते हैं। किसी सिरफिरे से तो क्या कहें, पर आप लोगों से तो ये उम्मीद कतई नहीं की जा सकती।'
मुझे नहीं पता कि इसका असर क्या हुआ। रिवाल्वर वहीं छोड़, मैं निकल चुका था।
शाम को आचार्य ने रिवाल्वर लौटाते हुए वह लिफाफा भी दिखाया जिसमे चयनित हुआ मेरा नाम था तथा जिसे उन्होंने मेरे सामने ही सील किया था। यह आश्चर्यजनक किंतु सच था। ठठाकर मैं हँसा था। मैंने उनके पैर छुए, उन्हें चाय पिलाई तथा भगवद्गीता भेंट की। हाथ जोड़ धुँधुआती आँखों से मुझे देखते वे जब वापस लौटने को हुए तो मैंने कहा - 'भूल जाइए सब और आशीर्वाद दीजिए।' पर उन्होंने आँखे नीची कर ली। उदास हो रिवाल्वर मैंने कविता को वापस सौंप दिया।
शुक्र की महादशा में, मंगल की अंतर-दशा अब अपने पूर्ण रूप में लग चुकी थी।
सपने की बदली डिजाइन को मिटाना मेरे लिए आसान था, पर आचार्य वह नहीं कर पाए।
उनका चमकता चेहरा इधर स्याह हो चला था। कभी किसी भी विषय पर धड़धड़ाते बोलने वाले वे, अब अक्सर मंचों पर भकुवाने लगते थे। और अगर कहीं मैं वहाँ दिख गया तो चुप-चाप कुर्सी पर नत-नयन धँस जाते थे। शाम को, घाटों पर लगातार बुदबुदाते उन्हें घूमते देखा जाता था। हाथ की छड़ी को वे आसमान के कलेजे में घोंपते रहते।
लोगों ने बताया कि मेरी मौत हेतु उन्होंने औघड़ों की तंत्र विद्या का सहारा लिया। अपने घर की लाइब्रेरी में लगातार चौदह दिनों तक कर्ण-पिशाचिनी की गुप्त साधना की। अपना ही मूत्र और गू पीते खाते, साधना के अंतिम चौदहवें दिन जब वे उस कमरे से बाहर निकले तो लगभग बेहोश थे। पर उस हालत में भी मेरे बारे में पता करवाया। पर मैं तब भी सही सलामत जिंदा था। यह सुन उन्हें तगड़ा सदमा लगा था। उनके पड़ोसियों ने बताया कि पागलों की तरह, रातों को वे जोर-जोर मुझे गालियाँ बकते रहते। कहते हैं कि कर्ण-पिसाचिनि जिसके लिए सिद्ध होती है अगर उसे नही खा पाती तो साधक को ही खाने लगती है।
वैसे, शहर के लिए वे सचमुच ही पागल हो चुके थे। केवल मैं जानता था कि वे स्वस्थ हैं। पहले से भी ज्यादा स्वस्थ। अक्सर, किसी सड़क पर उनसे निगाहें मिल जाती तो वे सहम कर किसी आदमी, किसी गुमटी का ओट ले लेते। मैं उन्हें देख मुस्कुरा-भर देता। और शायद इससे उन्हें आग लग जाती। पर वे मेरा कुछ न कर पाते। और अब शायद चाहते भी न थे।
इधर कई दिनों से उन्हें देखा नहीं गया था। जितने मुँह, उतनी बातें। छात्रों में कुछ यूँ अफवाहें थी कि दुर्गा शप्तशती के उलटे जापों से उनकी प्राणवायु उलट गई है। चौराहों पर ये खबरें थी कि किसी के खिलाफ उन्होंने देश के वजीर को एक पत्र लिखा था पर पढ़ने-लिखने वालों से बेपनाह नफरत करने वाले उस वजीर ने उन्हीं के पीछे जासूस लगा दिए। उनका जीते जी घर से निकलना अब असंभव था।
और यह होलियों के आस पास पता चला कि, अपने घर के, किताबों से भरे उस बड़े कमरे में, उन्होंने अपने को आग लगा लिया। अदब के किसी आचार्य द्वारा चुनी गई यह एक अनोखी मौत थी। कहते हैं आलोचनाओं ने उन पर लगातार घी डाला था। कुछ ने उन्हें भयानक अट्टहास करती कर्ण-पिसाचिनि की गोद में बैठ जलते देखा था। वे सिद्धासन में बैठ, दोनों एड़ियों से गुप्तांगों को मसलते, आर्त भाव से जोर-जोर चिल्ला रहे थे - 'ऊँ लिंग सर्वनाम शक्ति भगवती कर्ण-पिशाचिनी चंड रूपी सच-सच मम वचन दे स्वाहा... ऊँ हं हन स्वाहा...'.
देखा यह भी गया था कि आग को और सुलगाने के लिए, किताबें खुद-ब-खुद आलमारियों से कूद-कूद उनके शरीर से बेतरह लिपट जाती थीं। मुझे लगता है कि भीतर के दुश्मन उनकी मौत के जिम्मेदार थे। वे आग के नजदीक न गए होंगे, आग कहीं से चल खुद उनके पास आई होगी और अचानक उन्हें लग गई होगी।
उनके मरने के बाद, कभी उनका दाहिना हाथ माना जाने वाला पर अब उनके मरने से खुश, एक बहुत बड़ा आलोचक खबरनवीसों को यह बता रहा था कि 'उनमें व्यक्तिगत बुराइयाँ भी काफी थीं। पर वे हमारे समय की मजबूरियाँ अतः सच्चाइयाँ हैं। अपनी नीचताओं के साथ वे एक महान इनसान थे। अग्नि में स्वयं का होम कर देना एक संवेदनशील कर्म है। इस देह-त्याग से उन्होंने साहित्य एवं समाज के सामने एक ऊँचा आदर्श रखा है। नई पीढ़ी को उनसे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।'
आचार्य की मौत को संदेहास्पद माना गया। मेरे विरोधियों ने इसे बेतरह हवा दिया। मजबूरन हुकूमत को जाँच कमेटी बैठानी पड़ी। कमेटी के लोगों ने बहुत तेजी से दौड़-भाग की। मुझसे कई बार पूछताछ की गई। पर अंततः आत्महत्या के आगे सुई नहीं घूमीं। हताश हो कमेटी ने एक रिपोर्ट सरकार को भेजी जिसका लब्बोलुआब ये था कि 'आचार्य की मौत एक गहरे दुष्चक्र की ओर संकेत करती है। ऐसा लगता है कि अदब की दुनिया भी अब उतनी साफ सुथरी नहीं रही। अपराधी मानसिकता के लोग यहाँ भी घुस आए हैं। स्वयं आचार्य के चरित्र के बारे में भी ऐसे बयान मिले हैं, जिन्हें, हुकूमत की नजर में, नत्थी किया जा रहा है। कमेटी सिफारिश करती है कि सरकार इस रिपोर्ट को प्राथमिकता से लेकर उचित कार्यवाही करे।'
आचार्य की मौत से वे कमरे एकबारगी अनाथ हो गए। उनके जैसा गणितकार अब दूसरा न था। और कहते हैं कि इन्ही दिनों माँ की छातियों जैसे पवित्र इन कमरों में से कुछ सुंदर और अर्थवान गीत गुनगुनाते हुए निकल गए। अब, कमरों में उन्होंने अच्छा महसूस किया। पंच उनके साथ इनसान बन पेश आए। खुद मैंने अपने दोस्त मेघनाथ चौहान को प्रेरित किया, जिसने उत्साह में अपने पुराने कागजों को फिर इकट्ठा किया। उसका गुरु, बच्चा गहड़वाल, खुद उसे उस कमरे तक छोड़ने गया था और उसकी सफलता के लिए खुदा से दुआएँ माँगी थीं। अलकनंदा के जिस पानी ने मुझमें नफरतों को घोल दिया था, उसी ने मेघनाथ चौहान को शीतल कर दिया। कहते हैं कि उस कमरे में उसने अपनी बेहद मार्मिक कविताओं से सबका दिल जीत लिया था। सफलता की खुशी वाली रात में, अपने जीवन में अंतिम बार उसने बंदूक की आवाजों से पहाड़ों का सीना पानी कर दिया था। रात भर खूनियों के उस जमघट में 'वाह वाह' और 'फिर से कहो' की आवाजें आती रहीं। आज वह उसी अलकनंदा के किनारों में बसा अदब का एक बेहतरीन उस्ताद है। अभी हाल ही में उसकी कविता की किताब - 'हत्या के विरुद्ध' शाया हुई जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने खूनी कहानियों को एकबारगी दर-बदर कर दिया।
मेघनाथ की सफलता ने, उसकी दुनिया के पढ़े-लिखे कई अन्य खूनियों को भी प्रेरित किया तथा बाद में, जिनमें से कई लेक्चरार हो गए। आज भी, इन अनहोनियों को, लोक, मजेदार तरीके से इस शे'र में याद करता है -
'खुदा की दरगाह से सब गधे फरार हो गए
कुछ को पुलिस ने पकड़ा तो कुछ लेक्चरार हो गए...
आचार्य की मौत का, बाखुदा, मुझे उतना दुख नहीं है। पर अपनी उस जिंदगी से जब एक बार ग्लानि हुई तो उन कविताओं से जिरह किया मैंने। जवाब में, आसमानी किताब की एक आयत मेरे सामने रख दिया उन्होंने। जिसके शब्द थे - 'उद्धरेत आत्मानं आत्मानं' - अर्थात - 'अपनी ही आत्मा से आत्मा का उद्धार करो।'
'पर, मेरी आत्मा तो सात तारों ने खौलते तेल के कड़ाहों में डाल रखा है।' - मेरे यह कहने पर वे मुस्कराती हुई सात भूमियों की समाधियों में उतर गई थीं। उनकी मुस्कराहट देख मुझे मोनालिसा की याद आई थी, जिसे मैंने अपने आखिरी इंटरव्यू के कमरे की दीवाल पर टँगे देखा था।
( यह कहानी सुन एकबारगी मैं सन्न रह गया। पर , सोचने पर लड़ाइयाँ काल्पनिक लगीं।
शातिराना उसे देख मैं तब मुस्कुराया। लेकिन तब तक सिगरेट फेंक वह क्लास की तरफ जा चुका था - आज उसे दिनकर की कविता ' कुरुक्षेत्र ' पढ़ानी थी। )